नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक ऐसा दुर्लभ और ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसने न केवल जाति प्रमाणपत्र जारी करने की पारंपरिक प्रक्रिया पर सवाल खड़े कर दिए बल्कि संविधान के तहत समानता, सामाजिक न्याय और बदलते सामाजिक ढांचे को लेकर नई बहस भी छेड़ दी है। मुख्य न्यायाधीश (CJI) सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की दो-judge बेंच ने पहली बार स्पष्ट रूप से कहा कि बदलते समय में यह विचारणीय है कि जाति प्रमाणपत्र केवल पिता की जाति के आधार पर क्यों जारी किया जाए? अदालत ने इस बात को स्वीकार किया कि परिस्थितियों और सामाजिक वास्तविकताओं के अनुसार, मां की जाति के आधार पर भी जाति प्रमाणपत्र जारी किया जाना संभव और उचित हो सकता है।
यह फैसला पुडुचेरी की एक नाबालिग लड़की से जुड़े मामले में आया। हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि लड़की को उसकी मां की “आदि द्रविड़” जाति के आधार पर अनुसूचित जाति (SC) प्रमाणपत्र जारी किया जाए, ताकि उसका शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्रभावित न हो। इस आदेश को चुनौती सुप्रीम कोर्ट में दी गई थी। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने न केवल हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा बल्कि इस मुद्दे पर गहरी संवेदनशीलता दिखाते हुए कहा कि कानून का व्यापक प्रश्न अभी खुला है और भविष्य में इस पर विस्तृत विचार होना बाकी है।
मामला क्या था?
पुडुचेरी निवासी मां ने स्थानीय तहसीलदार को आवेदन देकर अनुरोध किया था कि उसके तीन बच्चों—दो बेटियों और एक बेटे—को उसके जाति प्रमाणपत्र के आधार पर अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र जारी किया जाए, क्योंकि वह हिंदू ‘आदि द्रविड़’ समुदाय से आती है, जो अनुसूचित जाति में शामिल है।
दिलचस्प रूप से, उसके पति की जाति अनुसूचित जाति में शामिल नहीं है। लेकिन मां ने यह तर्क दिया कि शादी के बाद से उसका पति उसी के माता-पिता के घर पर रहता है, और बच्चों का पालन-पोषण तथा सामाजिक माहौल उसकी जातीय-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में ही हुआ है। इस आधार पर उसने दावा किया कि बच्चों को SC प्रमाणपत्र मिलना चाहिए।
तहसीलदार ने आवेदन खारिज कर दिया, जिसके बाद यह मामला मद्रास हाईकोर्ट पहुंचा। हाईकोर्ट ने तहसीलदार को निर्देश दिया कि वह मां की जाति के आधार पर बच्चों को SC प्रमाणपत्र जारी करे, अन्यथा उनकी शिक्षा और भविष्य गंभीर रूप से प्रभावित होंगे।
सरकार ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, लेकिन CJI सूर्यकांत की बेंच ने हस्तक्षेप से इनकार कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत ने सुनवाई के दौरान बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणी की। उन्होंने कहा—
“समय बदल रहा है। फिर केवल पिता की जाति के आधार पर ही जाति प्रमाणपत्र क्यों जारी किया जाए? माता की जाति के आधार पर भी यह संभव होना चाहिए।”
उन्होंने आगे यह भी स्पष्ट किया कि—
“अगर हम यह सिद्धांत स्वीकार कर लें कि मां की जाति के आधार पर जाति प्रमाणपत्र जारी हो सकता है, तब यह भी हो सकता है कि अनुसूचित जाति की महिला और उच्च जाति के पुरुष से पैदा हुए बच्चे, चाहे वे उच्च जाति के माहौल में पले-बढ़े हों, वे भी SC प्रमाणपत्र के हकदार हो जाएँ।”
CJI ने इस मुद्दे को अत्यंत जटिल और सामाजिक रूप से संवेदनशील बताते हुए कहा कि कानून के व्यापक प्रश्न—कि बच्चे को जाति माता-पिता में से किससे विरासत में मिलनी चाहिए—पर विस्तृत विचार किए बिना अंतिम निर्णय नहीं दिया जा सकता। इसलिए फिलहाल अदालत ने केवल इस मामले की विशेष परिस्थितियों को देखकर राहत दी है।
कानून का कौन-सा सवाल बाकी है?
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि यह मामला सिर्फ एक परिवार या एक लड़की का नहीं है, बल्कि व्यापक सामाजिक संरचना और जाति की विरासत से जुड़ा है। अब तक भारतीय कानून और प्रशासकीय प्रथाओं में यह माना गया है कि—
बच्चे की जाति पिता से निर्धारित होती है, जब तक कि असाधारण परिस्थितियों में कोई अलग आदेश न दिया जाए।
लेकिन देश में तेजी से बदलते सामाजिक ढांचे, अंतरजातीय विवाहों की बढ़ती संख्या, मातृसत्तात्मक समुदायों की मौजूदगी, और महिलाओं के अधिकारों को लेकर आधुनिक न्यायिक दृष्टिकोण इस नियम को चुनौती दे रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी इस बात का संकेत है कि आने वाले समय में यह नियम बदल सकता है।
कई याचिकाएं पहले से ही लंबित हैं जिनमें यह चुनौती दी गई है कि पिता की जाति ही क्यों अंतिम मानी जाए। उन पर अलग से सुनवाई होगी।
इस फैसले की अहमियत
यह निर्णय व्यक्तिगत मामले के स्तर पर भले ही सीमित प्रतीत हो, लेकिन इसके निहितार्थ अनेक हैं—
- मां की जाति का कानूनी महत्व बढ़ेगा।
- अंतरजातीय विवाहों से पैदा बच्चों के अधिकारों की नई व्याख्या होगी।
- सामाजिक न्याय के क्षेत्र में नई बहस शुरू होगी।
- सकारात्मक भेदभाव (Reservation) के नियम बदल सकते हैं।
- प्रशासनिक ढांचे को नई दिशानिर्देश बनाने होंगे।
यह फैसला महिलाओं के अधिकारों के दृष्टिकोण से भी बड़ा कदम माना जा रहा है, क्योंकि अब तक भारतीय सामाजिक संरचना में जातिगत पहचान अक्सर पिता के हाथ में केंद्रित रही है।
क्यों कहा जा रहा है कि यह बहस छेड़ देगा?
क्योंकि देश में आरक्षण एक अत्यंत संवेदनशील और अत्यधिक राजनीतिक विषय है। अगर भविष्य में यह मान लिया जाता है कि
“जाति माता से भी मिल सकती है”,
तो कई नए प्रकार के विवाद और परिस्थितियाँ पैदा हो सकती हैं। उदाहरण के लिए:
- यदि एक SC महिला उच्च जाति में विवाह करती है, तो उसके बच्चे उच्च जाति के माहौल में पले-बढ़े होने के बावजूद SC प्रमाणपत्र पा सकते हैं।
- इससे आरक्षण के वास्तविक लाभार्थियों और पात्रता की परिभाषा पर नया विमर्श शुरू होगा।
- प्रशासनिक स्तर पर सत्यापन प्रक्रिया भी जटिल होगी।
आगे क्या?
सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि—
यह फैसला विशेष परिस्थितियों में दिया गया अंतरिम निर्णय है।
साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि—
“कानून का सवाल खुला है।”
इसका मतलब है कि आने वाले महीनों में इस पर बड़ी बहस और विस्तृत सुनवाई होगी, और संभव है कि जाति विरासत से जुड़ा एक नया सिद्धांत स्थापित हो।
मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत का यह फैसला न केवल एक लड़की की शिक्षा और अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि आधुनिक भारतीय समाज में जातीय पहचान की कानूनी संरचना पर भी गहरा प्रभाव डालेगा। यह निर्णय बताता है कि सुप्रीम कोर्ट समय के साथ बदलती सामाजिक वास्तविकताओं को समझता है और संविधान की मूल भावना—समानता, न्याय और गरिमा—को ध्यान में रखते हुए नए रास्ते तलाशने को तैयार है।
यह फैसला आने वाले समय में देश की राजनीति, आरक्षण व्यवस्था, और जाति-संबंधी कानूनों पर गहरा असर डालेगा। अब सबकी निगाहें उन बड़ी याचिकाओं पर होंगी जिनमें पिता से मिलने वाली जाति के सिद्धांत को चुनौती दी गई है।
कहना गलत नहीं होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने एक नई और ऐतिहासिक बहस की शुरुआत कर दी है।

