
(विजय कुमार) नई दिल्ली, 1 दिसंबर। जून 2022 में, जब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने नागपुर में संघ पदाधिकारियों को संबोधित किया, तो उनका एक बयान विशेष रूप से चर्चा का विषय बना। उन्होंने कहा, “हर दिन कोई नया मुद्दा नहीं उठाना चाहिए। झगड़े क्यों बढ़ाए जाएं? हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों खोजा जाए?” यह बयान ज्ञानवापी मस्जिद के विवाद के बीच आया था और इसे संघ के रुख में बदलाव के संकेत के रूप में देखा गया। लेकिन आज, ढाई साल बाद, यह सवाल उठ रहा है कि क्या उनके इस संदेश को भुला दिया गया है। हाल की घटनाएँ, जैसे संभल में हुई हिंसा और अजमेर में दरगाह को लेकर नया विवाद, इस दिशा में चिंताएँ बढ़ा रही हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संभल में हाल ही में हुई हिंसा ने देश को हिलाकर रख दिया। मामला तब शुरू हुआ जब एक ट्रायल कोर्ट ने शाही मस्जिद पर सर्वेक्षण की अनुमति दी। इस विवाद का मूल यह दावा है कि मस्जिद भगवान कल्कि के एक मंदिर के खंडहरों पर बनाई गई थी। अदालत के आदेश के बाद भड़की हिंसा में चार लोगों की मौत हो गई। अजमेर में विश्व प्रसिद्ध दरगाह शरीफ को संकट मोचन महादेव मंदिर बताने का दावा, और इस पर एक स्थानीय अदालत द्वारा संबंधित पक्षों को नोटिस जारी किया जाना, स्थिति को और जटिल बना देता है।
इन विवादों ने न केवल धार्मिक समुदायों के बीच तनाव बढ़ाया है, बल्कि कानून, राजनीति, और समाज की धर्मनिरपेक्षता पर भी सवाल खड़े किए हैं। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह जैसे नेताओं ने खुले तौर पर इन दावों का समर्थन करते हुए कहा है कि “हिंदुओं को सच जानने का अधिकार है,” जबकि संघ का शीर्ष नेतृत्व, विशेष रूप से मोहन भागवत, ने इस तरह की घटनाओं को शांत करने की बात की है। यह विरोधाभासी रुख दिखाता है कि हिंदू दक्षिणपंथ के भीतर भी इन मुद्दों पर एकरूपता नहीं है।
1991 में बनाए गए पूजा स्थल अधिनियम के तहत स्पष्ट किया गया था कि 15 अगस्त, 1947 के बाद किसी भी धार्मिक स्थल के स्वरूप को नहीं बदला जा सकता। इस अधिनियम का उद्देश्य धार्मिक स्थलों को लेकर किसी भी नए विवाद को रोकना था। 2019 के अयोध्या फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम को भारतीय धर्मनिरपेक्षता की रक्षा का एक महत्वपूर्ण साधन बताया। लेकिन 2023 में ज्ञानवापी मस्जिद मामले में अदालत ने मस्जिद परिसर के वैज्ञानिक सर्वेक्षण की अनुमति दी, जिससे इस अधिनियम की व्याख्या को लेकर असमंजस पैदा हुआ।
ज्ञानवापी मामले में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि पूजा स्थल अधिनियम यह नहीं रोकता कि 15 अगस्त, 1947 को किसी धार्मिक स्थल का वास्तविक स्वरूप क्या था। इस टिप्पणी के बाद निचली अदालतों में कई नई याचिकाएँ दायर की गईं, जिनमें धार्मिक स्थलों को लेकर विवादित दावे किए गए। संभल और अजमेर में हुए घटनाक्रम इसी कड़ी का हिस्सा हैं।
इन घटनाओं ने अदालतों की भूमिका और उनकी जिम्मेदारी पर भी सवाल खड़े किए हैं। क्या न्यायपालिका को ऐसे सर्वेक्षणों की अनुमति देनी चाहिए, जो सामाजिक अस्थिरता को बढ़ावा दे सकते हैं? धार्मिक विवादों पर अदालत के आदेश सामाजिक समरसता के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं, खासकर जब विवादित स्थल धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक बन जाते हैं।
राजनीतिक दृष्टिकोण से भी यह मुद्दा जटिल है। भाजपा और आरएसएस के बीच वैचारिक विरोधाभास स्पष्ट है। जबकि केंद्रीय नेतृत्व “नए भारत” के विकास और एकता की बात करता है, जमीनी स्तर पर धार्मिक विवाद बढ़ते जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के “सबका साथ, सबका विकास” के नारे पर सवाल खड़े हो रहे हैं, क्योंकि धार्मिक विवाद सामाजिक विकास और निवेश को प्रभावित कर रहे हैं।
आरएसएस के भीतर भी गहरे मतभेद दिखाई देते हैं। मोहन भागवत धार्मिक स्थलों पर विवाद न बढ़ाने की अपील करते हैं, लेकिन संघ के कुछ सहायक संगठन इस अपील के विपरीत काम कर रहे हैं। यह सवाल उठता है कि क्या संघ का नेतृत्व जमीनी स्तर पर अपने कार्यकर्ताओं पर प्रभावी नियंत्रण रख पा रहा है।
धार्मिक विवादों का सबसे बड़ा प्रभाव समाज पर पड़ता है। हिंदू-मुस्लिम संबंधों में बढ़ती दरार, धार्मिक हिंसा, और क्षेत्रीय विकास में बाधा जैसी समस्याएँ इन विवादों से उत्पन्न होती हैं। देश की वैश्विक छवि भी प्रभावित होती है, क्योंकि भारत को एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के रूप में देखा जाता है।
इस स्थिति से निपटने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। सबसे पहले, अदालतों को इस प्रकार के विवादों पर स्पष्ट दिशा-निर्देश देने चाहिए। न्यायपालिका को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके आदेश सामाजिक समरसता को भंग न करें। सरकार को पूजा स्थल अधिनियम को प्रभावी रूप से लागू करना चाहिए और विवादों को बढ़ावा देने वाले तत्वों पर सख्ती से कार्रवाई करनी चाहिए।
धार्मिक स्थलों को लेकर विवाद से परे, देश को अपने अतीत से सबक लेकर भविष्य की ओर देखना चाहिए। यह समय है कि समाज, सरकार, और न्यायपालिका सभी मिलकर यह सुनिश्चित करें कि धार्मिक विवाद भारत की एकता और विकास को बाधित न करें। मोहन भागवत का 2022 का संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है। उसे केवल समझने की नहीं, बल्कि उस पर अमल करने की जरूरत है।
भारत को आगे बढ़ना होगा। मंदिर-मस्जिद विवादों में उलझने के बजाय एक ऐसा राष्ट्र बनाना होगा, जहाँ विकास, शांति, और सामाजिक समरसता सर्वोपरि हों। यही नया भारत होगा, जिसका सपना प्रधानमंत्री मोदी और हर भारतीय ने देखा है।