
(विजय प्रताप पांडे) नई दिल्ली 6 अक्टूबर भारत में महिलाओं के प्रति सम्मान और उनकी सुरक्षा की बात करना एक सांस्कृतिक गर्व का विषय है। हमारी परंपरा में महिलाओं को देवी के रूप में पूजा जाता है, और यह मान्यता भारतीय समाज में गहरे तक व्याप्त है। भारतीय पुरुषों को अक्सर उनकी सहनशीलता, नैतिकता, और अपने परिवार की महिलाओं की रक्षा के लिए तैयार रहने वाले व्यक्तियों के रूप में देखा जाता है। ‘है प्रीत जहां की रीत सदा’ जैसे गाने भी इस विचारधारा को बढ़ावा देते हैं कि भारतीय पुरुष अपनी मां, बहन, और देश की महिलाओं का सम्मान करते हैं। हालांकि, इस धारणा के बीच एक बड़ा विरोधाभास तब सामने आता है जब हम यौन हिंसा और विशेष रूप से वैवाहिक बलात्कार की बात करते हैं।
वैवाहिक बलात्कार, यानी विवाह के भीतर बिना सहमति के यौन संबंध, भारतीय समाज में एक विवादास्पद विषय है। केंद्र सरकार का हालिया बयान, जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं माना जाना चाहिए, एक बार फिर से इस विषय पर समाज और कानून के बीच की खाई को उजागर करता है। इस मुद्दे पर बार-बार होने वाली बहस ने कई सवाल उठाए हैं कि भारतीय समाज में महिलाओं के सम्मान और उनकी सुरक्षा की बात केवल एक सांस्कृतिक प्रतीक है या वास्तविकता।
वैवाहिक बलात्कार की कानूनी स्थिति
भारत में, वैवाहिक बलात्कार को वर्तमान में आपराधिक नहीं माना जाता। भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 375, जो बलात्कार को परिभाषित करती है, इसमें एक अपवाद जोड़ती है कि अगर कोई पुरुष अपनी पत्नी के साथ (बशर्ते पत्नी की उम्र 18 साल से अधिक हो) बिना सहमति के यौन संबंध बनाता है, तो उसे बलात्कार नहीं माना जाएगा। यह कानून उस समय का है जब शादी को एक संस्था के रूप में देखा जाता था जिसमें पत्नी की भूमिका “पति की संपत्ति” के रूप में होती थी। हालांकि, बदलते सामाजिक परिदृश्य और महिलाओं के अधिकारों के प्रति बढ़ती जागरूकता ने इस कानून को चुनौती दी है।
सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गई हैं जिनमें वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने की मांग की गई है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि विवाह के भीतर भी महिलाओं की सहमति का अधिकार होना चाहिए और बिना सहमति के यौन संबंध किसी भी परिस्थिति में बलात्कार ही होता है, चाहे वह विवाह के भीतर हो या बाहर। हालांकि, सरकार का तर्क है कि अगर वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित कर दिया गया, तो इसका दुरुपयोग होगा और यह विवाह संस्था को कमजोर करेगा। इस तर्क ने समाज में बहस छेड़ दी है कि क्या भारतीय समाज अभी भी एक पुरातन और पितृसत्तात्मक मानसिकता से बंधा हुआ है।
समाज और संस्कृति के बीच टकराव
भारत में महिलाओं का सम्मान करना और उन्हें देवी के रूप में देखना हमारी सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है। हमारे धार्मिक ग्रंथ और परंपराएं महिलाओं को आदर और सम्मान देने की शिक्षा देते हैं। लेकिन, यथार्थ में महिलाओं के प्रति हिंसा, विशेष रूप से यौन हिंसा, के मामले समाज में बढ़ते हुए दिखाई देते हैं। भारत को अक्सर पश्चिमी मीडिया में महिलाओं के लिए असुरक्षित स्थान के रूप में दिखाया जाता है। कई देशों ने अपने नागरिकों को भारत में यात्रा के दौरान सावधानी बरतने की सलाह दी है, खासकर महिलाओं को।
यहां सवाल यह उठता है कि अगर भारतीय समाज में महिलाओं का इतना सम्मान है, तो क्यों यौन हिंसा के मामले बढ़ते जा रहे हैं? क्यों बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में बढ़ोतरी हो रही है? क्यों वैवाहिक बलात्कार को कानूनन अपराध नहीं माना जाता? इन सवालों के जवाब भारतीय समाज के भीतर छिपे उन विरोधाभासों में मिलते हैं, जहां एक ओर महिलाओं को पूजा जाता है, तो दूसरी ओर उनकी सहमति और अधिकारों की अनदेखी की जाती है।
वैवाहिक बलात्कार और भारतीय समाज
भारतीय समाज में वैवाहिक बलात्कार पर बात करना अभी भी एक वर्जित विषय है। कई लोग इसे निजी मामला मानते हैं और इसे सार्वजनिक चर्चा का विषय नहीं मानते। पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार, विवाह के भीतर यौन संबंधों पर पति का अधिकार माना जाता है, और इसमें पत्नी की सहमति या असहमति का कोई स्थान नहीं होता। यह मानसिकता हमारे पितृसत्तात्मक समाज की देन है, जहां महिलाओं को अब भी एक तरह की अधीनस्थ स्थिति में रखा जाता है।
हालांकि, समय के साथ यह सोच बदल रही है। शहरी क्षेत्रों में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं और अपनी सहमति के अधिकार के लिए आवाज उठा रही हैं। वैवाहिक बलात्कार के खिलाफ कानूनी लड़ाई भी इसी बदलाव का हिस्सा है। महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों और नारीवादी आंदोलनों ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया है। उनके अनुसार, विवाह के भीतर भी यौन संबंधों के लिए सहमति का होना अनिवार्य है और बिना सहमति के कोई भी यौन संबंध बलात्कार ही माना जाना चाहिए।
केंद्र सरकार का रुख
सरकार ने बार-बार यह तर्क दिया है कि अगर वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित कर दिया गया, तो इससे विवाह संस्था को नुकसान पहुंचेगा। उनके अनुसार, इस कानून का दुरुपयोग हो सकता है और महिलाएं इसका इस्तेमाल अपने पतियों को प्रताड़ित करने के लिए कर सकती हैं। यह तर्क समाज के उन वर्गों में समर्थन पाता है जो विवाह को एक पवित्र और अपरिवर्तनीय बंधन मानते हैं, जहां पति-पत्नी के बीच किसी भी प्रकार का संघर्ष बाहरी हस्तक्षेप के बिना सुलझाया जाना चाहिए।
हालांकि, इस तर्क का विरोध करने वाले कहते हैं कि कानून का दुरुपयोग हर अपराध में हो सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अपराध को अपराध मानने से ही इनकार कर दिया जाए। वे कहते हैं कि अगर किसी महिला के साथ विवाह के भीतर यौन हिंसा होती है, तो उसे भी उसी तरह से न्याय मिलना चाहिए, जैसा विवाह के बाहर होने वाले यौन अपराधों में मिलता है।
वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के तर्क
1. महिलाओं की सहमति का अधिकार: एक महिला की सहमति का अधिकार विवाह के भीतर भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना विवाह के बाहर। किसी भी प्रकार का यौन संबंध केवल सहमति पर आधारित होना चाहिए, और इसे बलपूर्वक करने का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
2. पितृसत्ता का अंत: वैवाहिक बलात्कार को अपराध मानने से पितृसत्तात्मक समाज की उस सोच का अंत होगा जो मानता है कि पति का पत्नी पर अधिकार है। यह समाज में महिलाओं की स्थिति को सुधारने की दिशा में एक बड़ा कदम होगा।
3. न्याय की समानता: बलात्कार एक अपराध है, चाहे वह विवाह के भीतर हो या बाहर। दोनों ही स्थितियों में पीड़िता को समान रूप से न्याय मिलना चाहिए।
भारत में महिलाओं के प्रति सम्मान और उनके अधिकारों की बात एक जटिल मुद्दा है। जहां एक ओर हम अपनी संस्कृति और परंपरा पर गर्व करते हैं कि हम महिलाओं को देवी के रूप में पूजते हैं, वहीं दूसरी ओर वैवाहिक बलात्कार जैसे मुद्दों पर हमारी समाज की सोच बदलने की जरूरत है। यह जरूरी है कि महिलाओं को उनके अधिकारों का सम्मान मिले, चाहे वह विवाह के भीतर हो या बाहर।
वैवाहिक बलात्कार को अपराध मानना महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा। भारतीय समाज में बदलाव की यह प्रक्रिया धीमी है, लेकिन यह जरूरी है कि हम अपने सांस्कृतिक प्रतीकों और वास्तविकता के बीच के अंतर को समझें और सुधार की दिशा में कदम उठाएं।