
पहला दृश्य: जांच और फोटो सेशन
बेसिक शिक्षा विभाग के मंडल स्तरीय अधिकारी महोदय या उनके लोग कुछ अनुदानित विद्यालयों में जांच करने पहुंचे। चेहरे पर कर्तव्यनिष्ठा की चमक, हाथ में फाइलें, और आंखों में “बदलाव लाने की प्रतिबद्धता” (या यूं कहें कि बदलाव लाने की योजना) थी। साहब ने कक्षाओं का निरीक्षण किया, अध्यापकों से हालचाल पूछा और बच्चों से पूछा – “बच्चे, तुम्हें पढ़ाई में कोई दिक्कत तो नहीं?” बच्चों ने मासूमियत से सिर हिलाया, शायद वे भी जानते थे कि साहब की चिंता सिर्फ कुछ घंटों की है। जांच के बाद साहब या साहब के लोगों ने शिक्षकों के साथ फोटो खिंचवाई, जैसे किसी ऐतिहासिक घटना का दस्तावेजीकरण हो रहा हो। फोटो खिंचते ही शिक्षकों और छात्रों को एक अजीब-सी राहत मिली – “चलो, साहब का दौरा खत्म!” लेकिन उन्हें नहीं पता था कि असली कहानी तो अब शुरू हो रही थी।
दूसरा दृश्य: ‘अनुदानित’ विद्यालयों का ‘अनुदान’ अभियान
जांच के बाद स्कूल प्रबंधकों में अचानक नई ऊर्जा आ गई। जैसे ही साहब की गाड़ी स्कूल के गेट से बाहर निकली, वैसे ही गेट के अंदर “गुप्त मंत्रणा” शुरू हो गई। “भाइयों, दस-दस हजार का कलेक्शन करना है!” प्रबंधक ने घोषणा की। अध्यापकगण एक-दूसरे की शक्ल देखने लगे – “अरे! हमने तो सिर्फ फोटो खिंचवाई थी, अब ये दस हजार कहां से दें?” पर प्रबंधकों का तर्क था – “साहब के लोगों का का आदेश है, साहब को देना पड़ेगा, नहीं तो साहब शिक्षा विभाग में हंगामा कर देंगे, कहीं जांच रिपोर्ट में गड़बड़ी न लिख दें!” एक शिक्षक ने डरते-डरते पूछा, “साहब ने खुद थोड़े ही कहा है?” प्रबंधक मुस्कराए – “अरे भाई, साहब खुद थोड़े कहेंगे, हमें समझना चाहिए!” शिक्षा का मंदिर अब अर्थशास्त्र का अखाड़ा बन चुका था।
तीसरा दृश्य: कलेक्शन और भ्रष्टाचार का गणित
अब स्कूलों में एक नई गणना शुरू हो गई – “प्रति कर्मचारी दस हजार!” कुछ नए अध्यापक गणित के इस नए समीकरण को समझने की कोशिश कर रहे थे – “मान लीजिए हमारे विद्यालय में 15 अध्यापक हैं, तो 15 × 10,000 = 1,50,000 रुपये! यह रकम कहां से आएगी?” जवाब आया – “कुछ बच्चों की फीस बढ़ा दो, कुछ आपसी योगदान कर दो, और हां, थोड़ा चंदा भी जुटा लो।” कोई शिकायत न कर दे, इसलिए अध्यापकों को समझाया गया – “देखिए, साहब से पंगा मत लेना, नहीं तो अगले निरीक्षण में और बड़ा नुकसान होगा।” बेसिक शिक्षा विभाग के दफ्तर में भी चर्चा गर्म थी – “क्या साहब वाकई में पैसे मांग रहे हैं, या प्रबंधक ही मलाई खा रहे हैं?” पर सरकारी दफ्तरों में चर्चाएं होती रहती हैं, समाधान शायद ही कभी निकलते हैं।
अंतिम दृश्य: मुख्यमंत्री जी की चेतावनी और शिक्षा की विडंबना
मुख्यमंत्री जी ने कहा था – “जो पैसे मांगेगा, उसके खानदान में कोई भी सरकारी नौकरी करने से डरेगा!” लेकिन लगता है कि बेसिक शिक्षा विभाग के कुछ लोगों ने यह संबोधन मिस कर दिया, या फिर उन्होंने इसे ‘हास्य-व्यंग्य’ के रूप में ले लिया। आखिरकार, इस विभाग में जांच से ज्यादा कलेक्शन, शिक्षा से ज्यादा राजनीति, और छात्रों के भविष्य से ज्यादा साहब की जेब का महत्व बढ़ गया है। स्कूलों में बच्चों को ईमानदारी और नैतिकता पढ़ाई जाती है, लेकिन पीछे के दरवाजे से वही शिक्षक ‘दस-दस हजार’ के नए पाठ सीख रहे हैं। शायद यही कारण है कि शिक्षा विभाग में पढ़ाई से ज्यादा ‘व्यवसायिक कौशल’ विकसित हो रहा है!