
नई दिल्ली 3 नवंबर( विजय प्रताप पांडे)। उत्तर प्रदेश, अपने ऐतिहासिक महत्त्व, राजनीतिक नीतियों और सांस्कृतिक धरोहरों के लिए हमेशा चर्चा में रहता है, लेकिन इन दिनों अपराध और पुलिस की नाकामी के लिए भी मशहूर हो गया है। यहां स्थिति यह हो चुकी है कि अपराधी सीधे पुलिस पर गोलियां चलाने लगे हैं, और हैरत की बात यह है कि हर बार पुलिस के ‘निशानेबाज़’ उन्हें पैर में ही सटीक स्थान पर गोली मार लेते हैं। आखिर यह खेल कब तक चलता रहेगा, और क्या उत्तर प्रदेश पुलिस की कार्यप्रणाली कभी कारगर होगी? चलिए, इस पूरे प्रकरण पर एक दृष्टि डालते हैं।
अपराधियों की हिम्मत या पुलिस की नाकामी?
हमारे यहां एक कहावत है – ‘जब सैंया भये कोतवाल, तो डर काहे का।’ उत्तर प्रदेश के अपराधियों ने इस कहावत को बहुत ही गंभीरता से ले लिया है। यहाँ कोई दो कौड़ी का बदमाश कट्टा (देशी तमंचा) लेकर थाने की पुलिस के सामने ही गोलियां बरसाने आ जाता है। कभी SOG (स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप) तो कभी STF (स्पेशल टास्क फोर्स) पर भी हमला कर देता है, अब हमला हुआ है तो जवाब तो देना ही पड़ेगा सामने खड़ा उत्तर प्रदेश पुलिस का जवान जवाब देता है वह फायर करता है और फायर हुई गोली सीधे उसके दाएं या बाएं पैर में जाकर घुटने के नीचे लग जाती है।
पुलिस के ‘निशानेबाज़ी’ का अचूक हुनर
यह तो एक अद्भुत कला है कि पुलिस हर मुठभेड़ में केवल घुटने के नीचे गोली मारती है, और वह भी केवल दाहिने या बाएं पैर में। ऐसा लगता है जैसे पुलिस का मुख्य लक्ष्य अपराधियों को पकड़ना नहीं, बल्कि उन्हें घायल करना है। मानो पुलिस की मुठभेड़ों का नियम बना दिया गया हो कि गोलियां तो चलेंगी, लेकिन जान नहीं जाएगी। आखिरकार, पुलिस का मानवता से भी नाता है, और शायद इसलिए हमारे पुलिस वाले कभी अपराधी का बायां पैर छोड़कर दाहिना निशाना चूकते नहीं। इस ‘लक्ष्य सिद्धि’ पर जनता भी बड़ी हैरान है, लेकिन यह है भी बहुत ‘दिव्य’ उपलब्धि!
इलाज का ‘स्पेशल पैकेज’
मुठभेड़ के बाद कहानी वहीं नहीं रुकती। घायल अपराधी का पहले अस्पताल में इलाज करवाया जाता है, उसके बाद उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है, और फिर जेल में भेज दिया जाता है। हर अपराधी मानो जानता हो कि पुलिस के ‘दिव्य’ निशाने से वह बचेगा और इस प्रक्रिया से उसे एक ‘आरामदायक’ जेल यात्रा मिलेगी। पुलिस मुठभेड़ों में अपराधी घायल हो जाएं, उनके लिए हर सुविधा मुहैया कराई जाएगी। आखिरकार, हमारे ‘कानून के रक्षक’ अपराधियों का ‘मानवाधिकार’ नहीं भूल सकते, जो कि भारत का ‘सर्वोच्च सिद्धांत’ है।
कट्टे और कारतूस की कहानी
अब कट्टे और कारतूस की बात करें तो उत्तर प्रदेश का हर अपराधी कट्टा लेकर मानो क्रीड़ा स्थल पर उतरता है। पता नहीं कहां से ये कट्टे उत्तर प्रदेश में आसानी से पहुंच जाते हैं, और हर बदमाश को मिल जाते हैं। पुलिस की मुठभेड़ों में कट्टे का जिक्र तो खूब होता है, लेकिन उस कट्टे की उत्पत्ति का कहीं जिक्र नहीं होता। और अब कारतूसों की बात करें तो, ये भी ‘जादुई’ रूप से बदमाशों के पास पहुंच जाते हैं। क्या उत्तर प्रदेश पुलिस कभी इन कारतूसों की सप्लाई चेन पर कार्रवाई करती है? नहीं, क्योंकि पुलिस को गोली चलाने और पैर में गोली मारने से फुर्सत मिलती कहां है?
कारतूस किसी लाइसेंस धारक के पास से ही आता है, क्योंकि ठोकुआ (घरेलू) कारतूस तो बनाना मुश्किल होता है। लेकिन यहाँ तक पहुँचने की बजाय, पुलिस केवल उन्हीं पर ‘मुठभेड़’ करती है जो सीधे ‘सड़क पर’ मिलते हैं। आखिर पुलिस को असली सप्लायर तक पहुँचने की मेहनत क्यों करनी चाहिए, जब निचले दर्जे के बदमाश भी जेल भरने के लिए पर्याप्त हैं।
विवेचना का झोल और चार्जशीट का मज़ाक
यहाँ विवेचना भी बड़ी रोचक है। मुठभेड़ के बाद जैसे ही अपराधी को पुलिस पकड़ती है, विवेचना शुरू होती है, चार्जशीट तैयार होती है, और अपराधी का नाम दर्ज हो जाता है। लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि चार्जशीट में न तो उस कट्टे की सप्लाई का जिक्र होता है, न ही कारतूस का स्रोत ढूंढने का कोई प्रयास होता है। अपराधी पकड़ा जाता है, पर असली गुनहगार, जो इन हथियारों की सप्लाई करता है, वह खुली हवा में घूमता है। क्या ऐसा लगता नहीं कि विवेचक कभी उस असली सप्लायर तक पहुंचना ही नहीं चाहते?
‘राम राज्य’ और भयमुक्त वातावरण का सपना
हमारे उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था के ऊपर कई तरह के व्यंग किए जाते हैं, लेकिन पुलिस हमेशा ‘राम राज्य’ और ‘भयमुक्त वातावरण’ के सपने दिखाती रहती है। अब यहां सपना हम इसलिए कह रहे हैं कि जब पुलिस टीम पर ही अपराधी फायर करने लगे तो आम व्यक्ति कैसे महफूज रह सकता है भले ही मुठभेड़ के बाद उसे अपराधी को गिरा दिया जाए लेकिन ऐसे हर मुठभेड़ एक कहानी लिखते हैं और अगर मुठभेड़ की संख्या बढ़ रही है तो अपराध और दुर्दांत अपराधी भी बढ़ रहे हैं। हर मुठभेड़ के बाद यह कहा जाता है कि पुलिस ने क्षेत्र को भयमुक्त कर दिया है, और जनता का विश्वास पुलिस पर बढ़ा है। लेकिन असल में, अपराधी हर दिन और भी निर्भीक होकर अपराध करते हैं। हर मुठभेड़ के बाद ‘भयमुक्त’ शब्द का इस्तेमाल होता है, पर हकीकत में ये केवल किताबों तक ही सीमित है।
प्रभात भारत विशेष
उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था एक तरह से व्यंग्य ही बन चुकी है। अपराधी पुलिस पर फायरिंग कर रहे हैं, और पुलिस आत्मरक्षा में गोली चला रही है पुलिस केवल घुटने के नीचे गोली मारकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान रही है। अपराधियों को जेल भेजने के बाद भी कोई विशेष कार्रवाई नहीं होती, क्योंकि असली जिम्मेदारियों का निर्वाह करना शायद हमारे प्रशासन के बस में नहीं है। अगर यही हालात रहे तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भविष्य में अपराधियों की हिम्मत और बढ़ेगी, और पुलिस के हाथ में केवल ‘पैर में गोली मारने’ का अधिकार ही रह जाएगा।