
गोंडा 23 मार्च। बेसिक शिक्षा विभाग में घोटालों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। एक ओर जहां अनुदानित विद्यालयों में भ्रष्टाचार की खबरें लगातार सुर्खियों में बनी हुई हैं, वहीं दूसरी ओर परिषदीय विद्यालयों में भी वित्तीय अनियमितताओं के मामले उजागर हो रहे हैं। इसी कड़ी में अब एक बड़ा मामला सामने आया है, जिसमें अनुचर (चपरासी) से सहायक अध्यापक बनाए गए जगदीश प्रसाद ओझा को गलत तरीके से प्रशिक्षित वेतनमान का भुगतान कर दिया गया। इस पूरे मामले में सहायक शिक्षा निदेशक (बेसिक), देवीपाटन मंडल, रामसागर पति त्रिपाठी की भूमिका संदिग्ध मानी जा रही है। अब जब शासन ने इस घोटाले को संज्ञान में लिया, तो आनन-फानन में भुगतान की वसूली के आदेश जारी कर दिए गए।
अनुचर से सहायक अध्यापक बनने की कहानी
जगदीश प्रसाद ओझा की नियुक्ति वर्ष 1983 में मृतक आश्रित कोटे से जूनियर हाई स्कूल, दुल्लापुर खालसा में अनुचर पद पर हुई थी। वर्षों बाद, 1996 में उन्हें सहायक अध्यापक बना दिया गया। यह पूरी प्रक्रिया तब भी संदेह के घेरे में थी, क्योंकि मृतक आश्रित के रूप में नियुक्त किसी भी कर्मचारी का कैडर बदला नहीं जा सकता। इसके बावजूद, तत्कालीन अधिकारियों ने उन्हें अनुचर से सहायक अध्यापक बनाने का आदेश दिया।
समस्या तब पैदा हुई जब वर्ष 2023 में जगदीश प्रसाद ओझा ने वित्त एवं लेखा अधिकारी, बेसिक शिक्षा गोंडा को पत्र लिखकर सहायक अध्यापक के पद का प्रशिक्षित वेतनमान और अवशेष भुगतान की मांग की। उनकी इस मांग के बाद पूरा मामला फिर से सक्रिय हो गया। 29 सितंबर 2023 को वित्त एवं लेखा अधिकारी ने मंडलीय सहायक शिक्षा निदेशक (बेसिक), देवीपाटन मंडल को पत्र भेजकर मार्गदर्शन मांगा। इसके बाद रामसागर पति त्रिपाठी ने बिना उचित जांच किए वेतन भुगतान की अनुमति दे दी।
सहायक शिक्षा निदेशक की भूमिका पर सवाल
रामसागर पति त्रिपाठी ने जब जगदीश प्रसाद ओझा के भुगतान की अनुमति दी, तो उन्होंने खुद ही उस पत्र का हवाला दिया, जिसमें साफ लिखा था कि ओझा की नियुक्ति अनुचर के रूप में हुई थी और बाद में उन्हें सहायक अध्यापक बनाया गया। अब सवाल यह उठता है कि यदि सहायक शिक्षा निदेशक को पहले से यह जानकारी थी, तो उन्होंने यह आदेश जारी ही क्यों किया? क्या उन्होंने पत्र में दर्ज जानकारियों को सही तरीके से पढ़ा नहीं, या फिर जानबूझकर इस अनियमितता को अंजाम दिया गया?
इस पूरे प्रकरण में एक और महत्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि जब शासन स्तर से इस घोटाले की जांच शुरू हुई, तो अचानक से रामसागर पति त्रिपाठी को याद आया कि मृतक आश्रित के रूप में नियुक्त व्यक्ति का कैडर बदला नहीं जा सकता। इसके बाद उन्होंने अपने ही आदेश को निरस्त करने की बात कही और दिए गए भुगतान की वसूली के निर्देश जारी कर दिए।
गलतियों का ठीकरा संजय चतुर्वेदी पर क्यों?
अब जब इस मामले की परतें खुलने लगीं, तो रामसागर पति त्रिपाठी ने अपने बचाव में संजय चतुर्वेदी, जो कि पूर्व वित्त एवं लेखा अधिकारी थे, पर आरोप मढ़ने की कोशिश की। उन्होंने तर्क दिया कि यह भुगतान संजय चतुर्वेदी के कार्यकाल में हुआ था और उन्हें इस पूरे मामले की सही जानकारी नहीं थी। लेकिन सवाल यह उठता है कि जब भुगतान की अनुमति स्वयं सहायक शिक्षा निदेशक ने दी थी, तो संजय चतुर्वेदी को दोषी ठहराना कितना सही है?
अगर रामसागर पति त्रिपाठी को इस अनियमितता की जानकारी नहीं थी, तो उन्होंने वह आदेश कैसे जारी किया, जिसमें स्पष्ट रूप से पहले के पत्रों का संदर्भ दिया गया था? क्या उन्होंने अपने आदेश को बिना जांच-परख के जारी कर दिया था, या फिर इसमें कोई व्यक्तिगत लाभ जुड़ा हुआ था?
क्या यह घोटाला सुनियोजित था?
इस पूरे प्रकरण की गहराई से जांच की जाए, तो यह साफ होता है कि यह कोई सामान्य गलती नहीं थी, बल्कि सुनियोजित वित्तीय अनियमितता थी। इसमें शामिल अधिकारियों ने नियमों की अनदेखी करते हुए गलत भुगतान को मंजूरी दी और जब मामला सार्वजनिक हुआ, तो अपने बचाव में पिछले अधिकारियों को दोषी ठहराने की रणनीति अपनाई।
अब जब शासन ने इस घोटाले को गंभीरता से लिया है, तो वसूली के आदेश जारी कर दिए गए हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या केवल वसूली ही पर्याप्त है, या इस घोटाले में शामिल अधिकारियों पर कड़ी कार्रवाई भी होगी? क्या ऐसे मामलों में संलिप्त अधिकारियों को दंडित किए बिना भविष्य में इस तरह की वित्तीय अनियमितताओं को रोका जा सकता है?
बेसिक शिक्षा विभाग में लगातार सामने आ रहे भ्रष्टाचार के मामलों से यह स्पष्ट हो गया है कि पारदर्शिता और जवाबदेही का अभाव इस पूरे तंत्र को खोखला कर रहा है। अगर जल्द ही इस पर लगाम नहीं लगाई गई, तो यह शिक्षा व्यवस्था की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़ा कर सकता है।