
“साहब ना बना, अच्छा हुआ”
सोचा था कुर्सी पर बैठूंगा,
न्याय करूंगा, सच कहूंगा।
पर देखा जब अफसर की लाचारी,
समझा, यह दुनिया है तबाही।
अगर ईमानदार रहता मैं,
हर दिन साज़िश सहता मैं।
बाबू मुझको फँसाने आता,
नेता रोज़ डरा कर जाता।
कभी हड़ताल, कभी आंदोलन,
कभी ट्रांसफर, कभी उलाहने।
फाइलों में सच दब जाता,
झूठ यहाँ पर बिकता जाता।
अगर मैं भी बेईमान बनता,
बेईमानी के रूपयों से बंगला, गाड़ी, शोहरत चमकता।
सलाम ठोकते नौकर-चाकर,
हर तरफ़ बस मेरा ही असर।
पर अगर कहीं चूक हो जाती,
विजिलेंस की तलवार गिर जाती।
फिर वो दिन और वो अंधियारे,
कानून की लंबी गलियारे।
इसलिए अच्छा हुआ साहब न बना,
ना अफसरों में मेरा नाम गिना।
कलम उठाई, सच को जाना,
ज़मीर जिंदा है, यही बहाना।