
(विजय कुमार) नई दिल्ली 27 अक्टूबर। भारत में मिठाई का एक अनोखा महत्व है। यह न केवल स्वाद और परंपरा का प्रतीक है, बल्कि सांस्कृतिक, भावनात्मक और सामाजिक रिश्तों का भी हिस्सा है। खासकर रेवड़ी, जो तिल, गुड़ और घी से बनी होती है, उत्तर भारत की एक साधारण मिठाई है। हालांकि, यह मिठाई अब अपने स्वाद के लिए नहीं, बल्कि राजनीति में “रेवड़ी संस्कृति” के संदर्भ में बदनाम हो गई है।
“रेवड़ी राजनीति” एक रूपक बन चुका है, जिसका उपयोग राजनीतिक दलों की लोकलुभावन नीतियों को निशाना बनाने के लिए किया जाता है। इसका अर्थ है मुफ्त सेवाएं, वस्तुएं या नकद हस्तांतरण के वादे, जिनके जरिए चुनावी मतदाताओं को आकर्षित किया जाता है। आलोचक इसे त्वरित लाभ के लिए तात्कालिक उपाय के रूप में देखते हैं, जो दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता के लिए नुकसानदायक है। लेकिन सवाल यह है कि क्या “रेवड़ी” को मात्र एक नकारात्मक संदर्भ में देखना सही है, और क्या यह राजकोषीय अनुशासन के खिलाफ है?
रेवड़ी का उद्भव और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य
रेवड़ी को उत्तर भारत में मिठाइयों की एक साधारण श्रेणी में गिना जाता था। पारंपरिक रूप से यह ठंड के मौसम में तिल और गुड़ के स्वास्थ्य लाभ के लिए खाई जाती थी। लेकिन राजनीतिक संदर्भ में इसका उपयोग तेजी से एक नकारात्मक रूपक के तौर पर बढ़ा। भारतीय राजनीति में, मुफ्त बिजली, पानी, राशन और नकद हस्तांतरण जैसी योजनाओं को “रेवड़ी बांटना” कहा जाने लगा। यह शब्द उन राजनीतिक दलों की आलोचना में प्रयुक्त होता है जो “लोकलुभावनवाद” के आधार पर सत्ता में आने का प्रयास करते हैं।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और आम आदमी पार्टी (आप) के बीच दिल्ली और पंजाब के चुनावों में इस शब्द का अत्यधिक उपयोग देखा गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “रेवड़ी संस्कृति” को आलोचना का विषय बनाते हुए इसे देश के आर्थिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताया। वहीं, आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने इसे जनहितैषी योजनाओं के रूप में पेश किया।
रेवड़ी और जनता का मोह
भारत जैसे विकासशील देश में, जहां गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली बड़ी आबादी है, मुफ्त की योजनाएं लोगों के जीवन में तत्काल राहत प्रदान करती हैं। चाहे वह मुफ्त राशन हो, महिलाओं को नकद हस्तांतरण हो, किसानों के लिए कर्ज माफी हो, या बेरोजगार युवाओं के लिए मासिक भत्ता हो, इन योजनाओं का जनता पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
लेकिन यह प्रश्न भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि इन मुफ्त योजनाओं का वित्तीय भार कौन उठाता है? राजकोषीय घाटा, महंगाई और बढ़ते कर्ज का सीधा असर आम नागरिकों पर ही पड़ता है। यह एक सच्चाई है कि कोई भी कल्याणकारी योजना वास्तव में “मुफ्त” नहीं होती। सरकार को इन योजनाओं की लागत पूरी करने के लिए करों में वृद्धि करनी पड़ती है या उधारी लेनी पड़ती है।
मुफ्त योजनाओं का आर्थिक प्रभाव
रेवड़ी राजनीति का सबसे बड़ा प्रभाव देश की आर्थिक स्थिति पर पड़ता है। भारत का राजकोषीय घाटा पहले से ही अत्यधिक है। मुफ्त की योजनाओं को लागू करने के लिए सरकार को अपनी खर्च सीमा को पार करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, यदि देश की 50% महिलाओं को प्रति माह 2,000 रुपये दिए जाते हैं, तो सालाना खर्च 8.4 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगा। यह राशि भारत के कुल राजकोषीय घाटे के लगभग 50% के बराबर होगी।
इस तरह की योजनाओं का दीर्घकालिक प्रभाव महंगाई और ब्याज दरों में वृद्धि के रूप में सामने आता है। जब सरकार अपने खर्चों को पूरा करने के लिए अधिक पैसा छापती है, तो बाजार में मुद्रा की आपूर्ति बढ़ जाती है, जिससे वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें बढ़ जाती हैं।
इसके अलावा, सरकारी उधारी बढ़ने से ब्याज दरें बढ़ती हैं, जिससे व्यापार और उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यह विकास दर को धीमा कर देता है और रोजगार के अवसर कम कर देता है।
राजनीतिक दलों का रवैया
दिलचस्प बात यह है कि हर राजनीतिक दल “रेवड़ी राजनीति” का आलोचक होता है, लेकिन सत्ता में आने के बाद वह इन्हीं लोकलुभावन नीतियों को लागू करने में अग्रणी बन जाता है। चाहे वह मुफ्त बिजली और पानी की योजनाएं हों, या किसानों की कर्ज माफी, कोई भी सरकार इन वादों को वापस लेने का साहस नहीं करती।
लोकतंत्र में, जहां हर पांच साल में चुनाव होते हैं, मतदाताओं को खुश करना राजनीतिक दलों की प्राथमिकता बन जाता है। रेवड़ी जैसी लोकलुभावन योजनाएं मतदाताओं को तत्काल लाभ प्रदान करती हैं, जिससे चुनाव जीतने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
समाज पर प्रभाव
रेवड़ी राजनीति का समाज पर एक नकारात्मक प्रभाव यह है कि यह जनता को आत्मनिर्भर बनने के बजाय सरकारी सहायता पर निर्भर बना देती है। यदि सरकार मुफ्त योजनाओं के बजाय रोजगार सृजन, बुनियादी ढांचे के विकास और शिक्षा पर अधिक ध्यान केंद्रित करे, तो यह दीर्घकालिक लाभ प्रदान कर सकता है।
इसके अतिरिक्त, मुफ्त की योजनाओं से सरकारी खजाने पर भार बढ़ता है, जिससे आवश्यक सेवाओं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा पर खर्च करने के लिए धन कम पड़ जाता है।
क्या “रेवड़ी” को गलत समझा जा रहा है?
यह कहना पूरी तरह से उचित नहीं होगा कि मुफ्त योजनाएं हमेशा खराब होती हैं। यदि इनका सही ढंग से प्रबंधन किया जाए और जरूरतमंदों तक सीमित रखा जाए, तो ये योजनाएं समाज के कमजोर वर्गों को सशक्त बना सकती हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) ने गरीबी उन्मूलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
लेकिन समस्या तब होती है जब ये योजनाएं बेतरतीब और राजनीतिक लाभ के लिए लागू की जाती हैं। बिना किसी ठोस वित्तीय योजना के लागू की गई योजनाएं न केवल आर्थिक अस्थिरता का कारण बनती हैं, बल्कि समाज में असमानता को भी बढ़ावा देती हैं।
आगे का रास्ता
रेवड़ी राजनीति से बचने के लिए सरकारों को अपनी प्राथमिकताएं स्पष्ट करनी होंगी। दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए, सरकार को लोकलुभावन नीतियों के बजाय संरचनात्मक सुधारों पर ध्यान देना चाहिए।
1. बजटीय अनुशासन: सरकार को अपने खर्चों को नियंत्रित करना चाहिए और प्राथमिकता के आधार पर धन का आवंटन करना चाहिए।
2. लक्षित योजनाएं: मुफ्त की योजनाओं को केवल जरूरतमंदों तक सीमित रखना चाहिए। इसके लिए एक मजबूत डेटा आधार तैयार किया जाना चाहिए।
3. रोजगार सृजन: मुफ्त नकद हस्तांतरण के बजाय, रोजगार सृजन और उद्यमिता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
4. शिक्षा और स्वास्थ्य पर निवेश: मुफ्त सेवाओं के बजाय, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश करना दीर्घकालिक लाभ प्रदान कर सकता है।
5. सुधारवादी नीतियां: कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र में सुधार लाकर आर्थिक विकास को बढ़ावा देना चाहिए।
प्रभात भारत विशेष
रेवड़ी, जो कभी एक साधारण मिठाई थी, अब भारतीय राजनीति में लोकलुभावनवाद का प्रतीक बन चुकी है। “रेवड़ी राजनीति” केवल चुनावी रणनीति का हिस्सा नहीं है, बल्कि यह देश की आर्थिक स्थिरता के लिए एक चुनौती भी है।
आवश्यकता इस बात की है कि हम, नागरिक के रूप में, इन योजनाओं के दीर्घकालिक प्रभावों को समझें और जिम्मेदार सरकारों को चुने जो जनहित में दीर्घकालिक और संरचनात्मक नीतियों को प्राथमिकता दें। राजनीति में रेवड़ी संस्कृति को समाप्त करने का मतलब केवल मुफ्त की योजनाओं को रोकना नहीं है, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था तैयार करना है, जहां हर नागरिक को सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर मिले।
अंततः, यह हमारा देश है, और इसकी स्थिरता और समृद्धि की जिम्मेदारी हमारी है। रेवड़ी, चाहे वह मिठाई हो या राजनीति, उसे जिम्मेदारी के साथ परोसा जाना चाहिए।